Sunday, 1 January 2017

यूपीः मुलायम का बिखर गया समाजवादी परिवार

यूपीः मुलायम का बिखर गया समाजवादी परिवार
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यूपी में मुलायम का समाजवादी परिवार टूट गया। सत्ता के संघर्ष और घरेलू झगड़े में तकरीबन 25 साल पुरानी समाजवादी विचारधारा ताश के पत्तों की माफिक बिखर गयी। यह उत्तर प्रदेश की राजनीति के लिए शुभ संकेत नहीं है। देश के राजनीतिक इतिहास की शायद यह सबसे बड़ी त्रासदी है जहां सत्ता के केंद्रीय करण पर पूरा परिवार और दल विखंडित हो गया। राजनीतिक पृष्ठभूमि और उत्तराधिकार के इतिहास में बाप की सियासी सिंहासन बेटा ही संभालता है लेकिन यहां सिंहासन और सत्ता को लेकर बाप-बेटे में संघर्ष और सहमात दिखी। लोहिया के समाजवाद और उसके राजनीतिक विरासतदार मुलामय सिंह यादव के लिए यह सबसे बड़ा दुर्दीन साबित हुआ। मुलायम सिंह यादव देश की राजनीति में दिग्गज नेताओं में एक हैं। यूपी की जातिय राजनीति में उनका कोई जोड़ नहीं रहा। उन्होंने अपनी राजनीतिक कुशलता से पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह जैसे लीडर को सियासी मात दी। लेकिन परिवारवाद के चक्रव्यूह की लड़ाई में आज वह पराजित हो गए। उनका बेटा ही उनके हाथ निकल गया। खुद पिता को ही मुख्यमंत्री बेटे को छह साल के लिए पार्टी से निकालना पड़ा। इस दौरान वह बेहद दुःखी और आहत दिखे। लेकिन सिंहासन की जंग में अयोध्या नरेश महाराज दशरथ को भी इस गति को प्राप्त होना पड़ा था, फिर सैफई नरेश इससे भला कहां अछूते रह सकते थे। कहा जाता है कि राजनीति और सत्ता में जंग जायज है, वहीं सब कुछ यूपी में हुआ। लेकिन मुलायम सिंह यादव कहीं न कहीं से परिवार के हालात को समझने में नाकाम रहे। जिसका नतीजा रहा कि समाजवादी टूकड़ो-टूकड़ों में बंट गयी। समाजवादी थिंक टैंक माने जाने वाले रामगोपाल यादव और अखिलेश को निकाल कर नेता जी ने बड़ी भूल की और फैसले जल्दबाजी में लिए। इस राजनीतिक घटना क्रम में सीएम अखिलेश संवैधानिक रुप से काफी मजबूत हैं। राज्य के एमएलए और समर्थक उनके साथ हैं। राज्य की कमान मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के पास भले रही, लेकिन उसका रिमोट मुलायम सिंह यादव अपने पास रखना चाहते थे। पिता मुलायम सिंह यादव सीएम अखिलेश के साथ मुख्यमंत्री जैसा बरताव कभी नहीं किया। सार्वजनिक मंचों पर उन्हें नीचा दिखाने की हर वक्त कोशिश की। इतने बड़े राज्य के मुख्यमंत्री को उन्होंने बेटा माना और उसी जैसा व्यवहार किया। लेकिन यह अच्छी बात होती जब एक पिता की सोच में बेटे का लाड़ रहता लेकिन उनकी नीयत पवित्र नहीं थी जिसका यह हस्र हुआ। खुले मंच से मुलायम सिंह और चाचा शिवपाल उन्हें जलील किया और सरकार को कटघरे में खड़ा किया। आखिरकार बेटे की शतरंजी चाल में पिता-चाचा के साथ अमर एंड आजम कपंनी धराशायी हो गयी। अब वह मुलायम सिंह के साथ जंगल में जाने की बात कह रहे हैं, सवाल उनके पास बचा ही क्या। परिवारवाद की इस लड़ाई में समाजवाद की विरासत अखिलेश के हाथ में जाती दिखती है। पूरे घटना क्रम में वह मजबूत शक्ति के रुप में उभरे हैं। मीडिया रिपोर्टो की माने तो बाप-बेटे की तरफ से बुलाई गयी मीटिंग में अखिलेश को 200 से अधिक विधायकों का समर्थन मिला है। जबकि विस में पार्टी के कुल विधायकों की संख्या 224 है। इस लिहाज से यह साफ जाहिर है कि सीएम का बहुत विधानसभा से पहले की साबित हो गया है।समाजवादी परिवार में असली झगड़े की वजह आज भी सामने नहीं आ पायी है। पिता मुलायम सिंह और अमर सिंह कंपनी अखिलेश से नाराज क्यों है। अखिलेश की तरफ से उठाए गए सावाल क्या गलत हैं। सीएम के विरोध के बाद मुख्तार अंसारी की कौमी एकता दल के विलय पर गौर क्यों नहीं किया गया। अतीक अहमद और दूसरे माफियाओं को टिकट क्यों दिया गया। हलांकि माफियाओं को दोनों धड़ों ने टिकट दिया है। किसी ने 75 तो दूसरे ने 55 माफियाओं को टिकट दिया है। अखिलेश अपराधी छबि के लोगों को पार्टी में लेने से मना कर रहे थे उसमें बुरा क्या था। पिता और चाचा माफियाओं की झोली में क्यों गए। एक मुख्यमंत्री को काठ का उल्लू समझने की समाजवादी पार्टी ने भूल क्यों किया। उस स्थिति में जब समाजवादी पार्टी को एक बेदाग और युवा सोच का नेतृत्व मिला। जिसकी प्रशंसा विरोधी दल के लोग भी करते हैं। क्यों किया। गलत निर्णय का नतीजा रहा कि आज समाजवादी पार्टी को सींचने वाले पिता हासिए पर हैं और बेटा एक नए अवतार के रुप में उभरे हैं। पिता मुलायम सिंह की मुलाकात में सीएम ने पार्टी से अमर सिंह को निकालने की एक मुश्किल शर्त रखी है। यह बेहद अहम मसला है। अब सवाल उठता है कि मुलायम क्या बेटे का मान रखते हैं और पार्टी को बचाने के लिए यह फैसला लेंगे या टूटने देंगे। यह वक्त बताएगा समय का इतंजार कीजिए। परिवारवाद की इस पूरी लड़ाई में एक बात शीर्ष से उभरी है। वह पिता मुलायम और बेटे अखिलेश के रिश्ते की। इतने सबकुछ के बाद भी अखिलेश ने कभी मुलायम सिंह यादव को हासिए पर नहीं रखा। विधायकों की मीटिंग के अखिलेश आजम खां के साथ अखिलेश मुलायम सिंह के आवास पहुंचे हैं। इससे यह साबित होता है कि बिगड़ी बात बन जाएगी। मुलायम सिंह ने निष्कासन के बाद एक बात कहा था कि बेटा है अगर माफी मांगेगा तो देखा जाएगा। हमारे विचार में यह पूरी पटकथा मुलायम और आजम खां की दिखती है। क्योंकि इस जंग में सीएम भारी पड़े हैं। पार्टी के सबसे अधिक विधायकों का समर्थन उन्हें हासिल हैं। इस लिहाज से मुलायम सिंह यादव शिवपाल सिंह एंड अमर कंपनी के साथ परिवार में अखिलेश विरोधी खेमों को यह संदेश कड़ा संदेश देने में सफल हो सकते हैं कि सीएम के साथ पूरी पार्टी खड़ी है। विधायकों और युवा कार्यकर्ताओं का उसे समर्थन है। अगर विस में मत विभाजन भी हुआ तो अखिलेश की जीत होगी और वह दिन हमारे और समाजवादी पार्टी के लिए सबसे बुरा होगा। अखिलेश विरोधियों को यह समझाने में कामयाब हो सकते है कि पार्टी की कमान सीधे अखिलेश को सौंप दी जाय और सारा फैसला उसी पड़ छोड़ दिया जाय। इस बात से मुलायम अपनी नीति में सफल हो सकते हैं और परिवार और पार्टी में बेटे के विरोधियों को परास्त कर सकते हैं।यह पूरी समाजवादी पार्टी के हित में होगा। क्योंकि सामने चुनाव और इस झगड़े से पार्टी को भारी नुकसान हो सकता है। बात बनती है तो आजम खां के लिए अच्छा होगा और अमर सिंह को नीचा दिखाने में वह कामयाब होंगे। शिवपाल सिंह भी मीटिंग में भाग लेने गए हैं उनके साथ उनके बेटे आदित्य भी हैं। सवाल उठता है कि अगर समझौता हो गया तो फिर इस सियासी नाटक का मतलब क्या है।सबसे अहम सवाल यह है कि मुलायम सिंह यादव की तरफ से जारी 325 की सूची और अखिलेश की 235 लोगों की सूची में 65 फीसदी से अधिक ऐसे विधायक या उम्मीदवार हैं तो दोनों में हैं। यह मत विभाजन के किसके साथ होंगे। इस परिवारिक झगड़े का सीधा फायदा भाजपा और बसपा उठा सकती है। मुस्लिम वोटर बसपा और यादवों को छोड़ दूसरी ओबीसी जातियां भाजपा की तरफ रुख कर सकती हैं जिसका नुकसान बाप-बेटे दोनों को भुगतना पड़ेगा। लेकिन अगर अखिलेश पूरे विधायकों का समर्थन हासिल कर लेंगे तो स्थिति बदल सकती है। हलांकि मुलायम सिंह यादव धोबी पछाड़ और चरखा दांव में काफी कुशल हैं। लेकिन नीति कहती है कि जब बाप की जूती बेटे के पैर में होने लगे तो उससे मित्रवत व्यवहार करना चाहिए। फिलहाल अगर समझौते की कोई बात नहीं बनती है तो दोनों के लिए नुकसान होगा। जिसका पूरा लाभ भाजपा और बसपा उठाने में कामयाब होगी।



                   

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